Saturday, May 30, 2009

२५ मई से बदल रहा है


25 मई से बदल रहा है....25 मई से छोटे पर्दे के कार्यक्रमों में जो बदलाव आया....उसे देखकर लगता है कि महिलाओं को सिर्फ एक कमोडिटी की भांति प्रयोग करता आ रहा टेलिविजन अब कुछ बदल रहा है....और आज की आधुनिक संघर्षरत महिला की छवि को देश के सामने पेश करने की कोशिश कर रहा है....हाल ही में देखने में आया कि एक के बाद एक एंटरटेनमेंट चैनल ने महिलाओं की दमदार भूमिका वाले कुछ टीवी सीरीयलों का प्रसारण शुरु किया....जिनमें एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित होने वाला ज्योति, सोनी पर प्रसारित होने वाला लेडिज स्पेशल, पालमपुर एक्सप्रेस, कुछ ऐसे सीरीयल हैं....जो आज की भागमभाग भरी दुनिया में एक संघर्षरत महिला की भूमिका को पेश करने की कोशिश कर रहे हैं....जबकि आज से पहले टीवी महिला को एक कमोडिटी के रुप में पेश करता आ रहा था....महिला को टीवी विज्ञापनों और सीरीयलों में एक कमजोर पात्र के रुप में पेश किया जाता था....उसे ऐसी भूमिकाओं में पेश किया जाता था....जैसे इस जमीं पर वो प्रकृति की सबसे कमजोर प्राणी में से एक है....लेकिन जैसे-जैसे समाज में नारी का कद बढ़ता चला गया....और एक के बाद एक कई महिलाओं ने सफलता के शिखर पर अपने झंडे गाड़े....उसे सिर्फ पूरे समाज ही नहीं, बल्कि टेलिविजन ने भी स्वीकार कर लिया है..... ऐसे में अगर ऊपर वर्णित सीरीयलों के पात्र के बारे में बात करें तो एनडीटीवी पर प्रसारित होने वाला सीरीयल ज्योति एक ऐसी लड़की की कहानी है....जो विषम से विषम परिस्थितियों में पूरी हिम्मत के साथ डटकर उसका सामना करती है....औऱ आज के समाज की ऐसी संघर्षरत महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है....जो तमाम दुखों के बावजूद सारी परेशानियों को सहकर दूसरों की खुशी के लिए अपनी खुशी का त्याग कर देती हैं....जबकि सोनी पर प्रसारित होने वाले पालमपुर एक्सप्रेस की लड़की का किरदार....आज की उस लड़की को दर्शाता है....जिसमें कुछ करने की ललक है....उसमें अपने सपने को सच करने की हिम्मत है....वो भी औरों की तरह आगे बढना चाहती है....अपना एक अलग मुकाम हासिल करना चाहती हैं....इसी के साथ अगर सोनी के ही कार्यक्रम लेडिज स्पेशल की बात की जाए....तो वो तस्वीर है....आज की संघर्षरत नारी की....जो किसी भी सूरत में मर्दों से पीछे नहीं है....वो भी मर्दों की तरह की नौकरी करती है....और परिवार को चलाने में उसकी भी बराबर की हिस्सेदारी होती है....वो भी अपने फैसले लेने की कुव्वद रखती है....
इन सब सीरीयलों को देखकर लगता है कि समाज और टेलिविजन दोनों ने नारी के महत्व को पहचान लिया है....और वो समझ गया है कि....नारी अबला नहीं सबला है....टेलिविजन की इस पहल को एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है....उम्मीद है कि आगे आने वाले समय में भी टेलिविजन इस दिशा में कुछ और महत्वपूर् कदम उठायेगा....

अमित कुमार यादव

Friday, May 22, 2009

पत्रक्ररिता का हथियार पैसा और जुगाड़

पत्रकारिता का हथियार पैसा और जुगाड़....हो सकता है कि कुछ लोगों को इस बात से कोई इत्तेफाक न हो....और उन्हें ये बात सही न लगती हो....लेकिन मेरे संगी-साथी जो....मेरी तरह खबरों की इस दुनिया में संघर्षरत हैं....उन्हें जरुर इसके कुछ मायने नजर आएंगे....आजकल खबरों की दुनिया में दो ही लोगों की चांदी है....जिसके पास या तो किसी रसूखदार व्यक्ति का जुगाड़ है....या फिर वो किसी ऐसे संस्थान से कोर्स कर रहा है....जिसने उसे नौकरी देने का वादा किया हो....मैं यहां पर अपने ही कुछ अनुभव बांटने की कोशिश कर रहा हूं....जिनके बारे में जानकर शायद आप भी मेरी बातों से कुछ इत्तेफाक रखें....मैंने 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के कोर्स में दाखिल लिया....ऊपर वाले की नजर अच्छी थी....लिहाजा कोर्स के बीच में ही एक चैनल को पांच महीने अपनी निशुल्क सेवा देने के बाद हमें एक छोटी सी नौकरी मिल गई....2008 में कोर्स खत्म हुआ....हम चैनल में खबरों को समझने में ही लगे हुए थे....यानि नौकरी कर रहे थे....तब हमें भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला मिल गया....तो हम नौकरी छोड़कर एक बार फिर पीजी डिप्लोमा करने वहां जा पहुंचे....हमारे साथ जो हमारे कुछ मित्र भी पास होकर निकले थे....उनमें से कुछ तो अब भी मेरी तरह अपनी रातें काली कर रहे हैं....यानि फ्री में ही चैनलों में नाइट शिफ्ट में लगे हुए हैं....कुछ लोगों ने ऐसे चैनलों के संस्थानों में दाखिला ले लिया.....जो एक मोटी रकम वसूलने के बाद....नौकरी देने का वादा करते हैं.....शायद आप जान ही गए होंगे कि मैं किनके बारे में बात कर रहा हूं....हम पूरे नौ महीने पत्रकार बनने की कोशिश करते रहे....अब ये तो हम भी नहीं जानते कि हम पत्रकार बन पाये या नहीं....लेकिन मेरे जिन मित्रों ने चैनलों के संस्थानों में दाखिला लिया था....वो जरुरु मीडिया क्लर्क बन गए....मैं यह नहीं कह रहा कि वो लोग पत्रकार नहीं हैं....बल्कि मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम लोग खबरें लिखने में ही लगे रहे....जबकि वो लोग एक प्रोफेशनल की तरह बाइट, और पीटीसी की पत्रकारिता में हाथ आजमाते रहे....आज आलम यह है कि उनमें से कोई किसी चैनल में एंकर है....कोई रिपोर्टर बनने वाला है....और हम करीब एक साल नौकरी करने के बाद भी दोबारा इंटर्नशिप कर रहे हैं....आम भाषा में कहा जाए तो....बिना पैसे की मजदूरी....अच्छा कुछ लोग ऐसे भी थे....जिन्होने पूरे कोर्स के दौरान मस्ती की.... हालांकि मस्ती हमने भी की....लेकिन टोटल मस्ती नहीं की....हां तो मैं कह रहा था कि कुछ लोगों ने पूरे कोर्स के दौरान मस्ती की....और फिर जय जुगाड़ बाबा की....लग गए किसी को तेल लगाने में और बन बैठे आज की पत्रकारिता के पत्रकार...खैर ये है हमारी आधुनिक पत्रकारिता का चेहरा....पत्रकारिता का हथियार....पैसा और जुगाड़....

अमित कुमार यादव

Thursday, May 21, 2009

बदलते मिजाज

मौसम को रंग बदलते देखा है, बादलों को करवट लेते देखा है, लेकिन आज पहली बार दोस्तों को बदलते देखा है....आईआईएमसी की यादों ने एक बार फिर मुझे जकड़ लिया और एक बार फिर मैं पहुंच गया अपने उन्हीं हसीन दिनों में....लेकिन इतनी मीठी-मीठी यादों के बीच एक कड़वे अनुभव से पाला पड़ गया....कल तक जो दोस्त थे....आज दुश्मन तो नहीं कह सकते....पर हां यह कह सकते हैं कि ऐसे दोस्त नहीं रहे....जैसे उन दिनों में हुआ करते थे.... साथ खाना, साथ पीना, किसी दोस्त के प्यार को पाने में उसकी मदद करना.... माफ कीजिएगा एक राज की बात है लेकिन सच है इसलिए मुझे लिखते हुए कोई संकोच नहीं है....कभी-कभी तो पूरी रात किसी एक लड़की के बारे में बातें करते करते गुजर जाती थी और तो और कई-कई दिनों तक एक-दूसरे के कमरों पर ही वक्त गुजरता था....लेकिन जैसे ही संस्थान के दरवाजे से बाहर निकले....सारा मंजर ही कुछ और है....न अब वो दोस्त है जो परेशानी में हौसला देता था....न वो थाली है जिसमें साथ बैठकर हम लोग खाना खाया करते थे....लेकिन इन सब के बीच पीड़ा तब होती है....जब पता चलता है कि कल तक जो दोस्त तारीफ किया करता था....आज पता चलता है कि पीछे से बुराई कर रहा है....और एक दूसरे के बारे में ऐसी बातें की जा रही हैं....जिन पर विश्वास नहीं होता....कि वो ऐसा कर सकता है....जिस पर इतना भरोसा था....खैर ये सिर्फ मेरी बात नहीं है....ये उन सब दोस्तों की बात है....जो कल तक साथ थे....औऱ आज इस भीड़भाड़ में इधर-उधर खो गए हैं....बस अपनी बात बशीर बद्र के इस शेर के साथ खत्म करता हूं कि.....”उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए”....

Sunday, May 3, 2009

पप्पू मत बनिये, वोट दीजिए


पप्पू मत बनिये ! वोट दीजिए। वोटरों को उनके वोट की अहमियत बताने के लिए इस बार विज्ञापन पर अच्छी खासी रकम खर्च की गई। लेकिन चुनावों के तीन चरणों में जो वोटिंग प्रतिशत रहा उसे देखकर लगता है कि पप्पू फेल तो नहीं हुआ लेकिन कंपार्टमेंट जरुर ले आया। यहां पर पप्पू से तात्पर्य केवल युवा मतदाताओं से ही नहीं है बल्कि हर आयु वर्ग के वोटरों से है। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में जहां साठ प्रतिशत वोटिंग हुई, वहीं दूसरे चरण में इसमें गिरावट आई और वोटिंग प्रतिशत केवल ५५ फीसद ही रहा जबकि तीसरे चरण तक आते-आते मतदान प्रतिशत के आंकड़ो में अतिरिक्त गिरावट आई और इस बार केवल ५० फीसदी ही वोटिंग हुई। कारण कुछ भी हो सकते हैं। कोई चिलचिलाती गर्मी को एक बड़ी वजह बता रहा है तो कोई अच्छे उम्मीदवारों के चुनाव मैदान में होने से वोटरों के मोहभंग होने को इसका एक बड़ा कारण मान रहा है। बहरहाल कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन अगर एक लोकतांत्रिक देश की जनता की ही लोकतंत्र के इस महापर्व में भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी तो चुनावों का आयोजन महज खानापूर्ति बनकर रह जायेगा।

मुरली की चाय

पुरानी जींस और गिटार, मुहल्ले की वो सड़क और मेरे यार, रेडियो पर ये गाना सुना तो फिर से मन लौट गया उन्हीं गलियों में जहां जिंदगी का एक हसीन लम्हा बिताया। आईआईएमसी के नौ महीने मेरे लिए हनीमून की तरह थे। हरियाली और पक्षियों के कलरव के बीच पत्थरों पर बैठकर मुरली की चाय की चुस्की लेना और दोस्तों के साथ गपशप लड़ाना एक कभी न भूलने वाला पल है। दस बजे की क्लास के लिए सुबह साढे नौ बजे उठकर जल्दी जल्दी भागना, इतना ही नहीं इससे पहले एक प्याली चाय पीना सब बहुत याद आता है।मुरली.....जितनी मीठी मुरली की तान, उतनी मीठी मुरली की चा। दस से पांच बजे तक की क्लास के बीच पांच-छः प्याली चाय गटकना आम बात थी। मुरली की दुकान हमारे लिए एक मंच थी- विचारों के लेन-देन का, बहस-मुहाबसे का। मुरली की दुकान पर जहां पूरे दिन का प्लान तय होता था, वहीं अगर वक्त मिलता तो लालू और सोनिया की बातें भी होती थी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कभी-कभार मूड खराब होता था तो , राजनीति पर भी बहस होती थी। मुरली की दुकान समाज को समझने का एक ठिकाना थी। मुझे याद आता है कि एक मजदूर मुरली की दुकान पर चाय पीने के लिए आता था। अगर मैं उसका एक रुपक पेश करुं तो जर्जर काया, कंधे पर पड़ा एक गमछा और एक धोती के अलावा शायद और उसके पास कुछ नहीं था। यह सब देखकर ह्रदय में एक पीड़ा होती थी कि, एसी के बंद कमरे में बैठकर बार-२ यह कहना कि देश के करीब ८० प्रतिशत लोग २० रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं, सब व्यर्थ है बेकार है। खैर मैं भी कहां समाजवादियों की तरह बातें करने लगा, जो मंचों पर तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन असल में उन्हें यह सब देखकर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आईआईएमसी के अहाते में मुरली की चाय की दुकान का एक अलग महत्व था। मुरली की चाय पीते-पीते ५-६ महीने मजे से बीते, लेकिन एक दिन अचानक पता चला कि मुरली को वहां से हटा दिया गया है। हमारे बीच से मुरली की दुकान का जाना सिर्फ यह नहीं था कि हमें अब उसकी चाय से वंचित होना पड़ेगा, बल्कि वहां होने वाली बहसें, विचारों का लेन-देन सब खत्म हो जायेगा। ५-६ महीने में हमारा मुरली के प्रति एक लगाव सा हो गया था, जिसे हम ऐसे तोड़ना नहीं चाहते थे। लिहाजा हमने सोचा कि इसके खिलाफ प्रशासन के पास जाएंगे। हमने ये बात अपने गुरुओं के सामने रखी, लेकिन वो भी किसी के आदेश तले दबे थे। हम लोग कुछ नहीं कर पाए। मुरली को वहां से हटा दिया गया। मुरली को हटाने के पीछे कारण दिया गया, छात्रों का मुरली की दुकान पर सिगरेट के छल्ले उड़ाना, जो दुकान हटने के बाद भी जारी रहा। क्योंकि आप किसी से उसकी रोटी छिन सकते हैं, लेकिन उसकी भूख खत्म नहीं कर सकते और एक सिगरेट पीने वाले को अगर सिगरेट पीनी होगी तो वो कहीं से भी लाकर पिएगा। मुरली को हटाने का असल कारण सिगरेट पीना नहीँ था, बल्कि मामला था मुरली की चाय की वजह से कैंटीन वाले की चाय में उबाल न आना। ज्यादातर छात्र मुरली की दुकान पर चाय पीते थे। कोई कैंटीन की वो बकवास चाय पीना पसंद नहीं करता था। बस सिगरेट का बहाना बनाकर मुरली पर नकेल कस दी गई। कुछ दिनों बाद एक सुबह मुरली को संस्थान के बगीचे में फावड़ा चलाते देखा, तो एक पीड़ा की अनुभूति हुई, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। एक गरीब को कैसे न कैसे तो अपना पेट पालना ही था। मुरली वहां से चला गया लेकिन आज भी जब संस्थान जाता हूं तो मुरली की याद फिर से ताजा हो जाती है।