बारिश की बूंदों को तरसता खेत हूं मैं
समंदर से निकला रेत हूं मैं
प्यासी, तपती, बंजर जमीन हूं मैं
शायद दृष्टिविहीन हूं मैं
तारों बिन सूना आकाश हूं मैं
बुझते दिए का प्रकाश हूं मैं
बिन स्याही की कलम हूं मैं
निरर्थक और असफल हूं मैं
बिन फल का एक तरु हूं मैं
बिन हरियाली मरु हूं मैं
बुझती हुई मशाल हूं मैं
एक अनसुलझा सवाल हूं मैं
एक मुरझाया फूल हूं मैं
रास्ते पर पड़ी धूल हूं मैं
टूटा हुआ सितार हूं मैं
लगता है बेकार हूं मैं
क्या हूं मैं ,और क्या नहीं हूं मैं
मैं हूं मैं, या मैं नहीं हूं मैं
जैसा हूं मैं, जो भी हूं मैं
हां हूं मैं....कहीं हूं मैं
अमित कुमार यादव
Tuesday, August 18, 2009
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